धर्मशास्त्रों में अपामार्ग का महत्व:
आयुर्वेद के अंदर अपामार्ग की गणना अत्यंत प्रभावशाली दिव्य औषधियों में की गई। वैदिक युग से ही इस अवधि औषधि की जानकारी यहाँ के लोगों को थी। प्राचीन काल में अपामार्ग को सभी वनस्पतियों का राजा/देवता कहा/माना जाता था।
शुक्ल यजुर्वेद में नमूची के कथानक में लिखा है कि किस प्रकार इंद्र द्वारा मारे गए नमूची नामक राक्षस के सर से अपामार्ग की उत्पत्ति होती है, जिसकी सहायता से इन्द्र संपूर्ण दैत्यों को मार डालने में समर्थ हुए। अपने रक्षोघ्न (राक्षसहन्ता) गुण के कारण अपामार्ग का वैदिक काल में यज्ञों में समिधा के रूप में महत्वपूर्ण स्थान था। इसे पापनाशन, मृत्युनाशन और दुह्श्वप्ननाशन गुणों से युक्त मन जाता था।
अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड के चतुर्थ अनुवाक के तीसरे-चौथे सूक्त में अपामार्ग की स्तुति की गई है। यहाँ अपामार्ग को सभी औषधियों को वश में करने वाला बताया गया है। अपामार्ग को दुर्भाग्यनाशन और अनपत्यनाशन (संतानहीनता को दूर करने वाला) गुणों से युक्त बताया गया है। कहा गया है कि अपामार्ग कृत्य आदि के द्वारा स्थापित रोग आदि दोषों को नष्ट करता है। तृष्णा से मरना, भूख से मरना अथवा भूख-प्यास के नष्ट हो जाने से पुरुष का मरण होना, गायों से रहित होना, नेत्रों की ज्योति की हीनता, इन्द्रियशक्ति के क्षरण, जुए में हारना और संतानहीनता इन सब दोषों को हम तुझ (अपामार्ग) से नष्ट करते हैं। ~ अथर्ववेद – 4-2-17-18
सतपथ ब्राह्मण के अनुसार अपामार्ग पाप, दोष, जादू-टोना, दुर्बलता, स्वप्न-विकार को दूर करने वाला होता है।
शिव पुराण – रुद्र-संहिता – सृष्टि-खंड – श्लोक 57-58 के अनुसार भगवान शिव को विशेष रूप से सफेद फूल और दुर्लभ फूल चढ़ाए जाएंगे। विभिन्न प्रकार के अपामार्ग, कर्पूर, जाती/चमेली, चंपक/चम्पा, कुश, पाटल, करवीरा, मल्लिका/(मोतिया, मोगरा), कमल और उत्पलस (लिली) के फूलों का उपयोग किया जाएगा। जब पानी डाला जाए तो उसे एक सतत धारा में डाला जाएगा।
अपामार्ग के नाम और परिचय:
अपामार्ग को आयुर्वेद में शिखरी, अधःशल्य, मयूरक, मर्कटी, किणिही, खरमंजरी यह अपामार्ग के नामों से जाना जाता है। हिंदी में इसे चिरचिटा, लटजीरा भी करते हैं। फारसी में इसे खारवास-गोता/खारेवाजूँ और अरबी में इसे आत्कम/अत्कूमाह कहते हैं। इंग्लिश में इसे रफ़चैफ़ ट्री (Rough chaff tree) और लैटिन में इसका नाम एचिरेंन्थस एसस्पेरा (Achyranthes Aspera) कहा जाता है। इसमें जीरे के आकार के काँटेदार फल लगते हैं, जो कपड़े पर चिपक जाते हैं, इसलिए कहीं कहीं स्थानीय भाषा में इसे कुत्ता नाम से भी पुकारा जाता है। इसकी एक प्रजाति लाल रंग की पाई जाती है जिससे रक्त-अपामार्ग कहा जाता है। रक्त-अपामार्ग को संस्कृत में धामार्गव, प्रत्यकर्पणी केशर्पणी और कपि-पिप्पली भी कहा जाता है।
आयुर्वेद संहिताओं में अपामार्ग:
चरक संहिता के सूत्रस्थान के चतुर्थ अध्याय में कृमिघ्न (श्लोक-15), शिरोविरेचनोपग (श्लोक-27) व वमनोपग (श्लोक-23) वर्गों में अपामार्ग का वर्णन किया है। चरक में अर्श चिकित्सा में और सुश्रुत के शोथरोग और उन्माद में अपामार्ग का प्रयोग नहीं मिलता है। सुश्रुत संहिता में वात-व्याधि, अर्श, अश्मरी, प्लीहोदर, कफ़जनाणीव्रण, काश, अतिसार आदि रोगों के उपचार में; चरक संहिता में कुष्ठ, राजयक्ष्मा, उन्माद, अपस्मार, उदररोग, काश, हिक्का-स्वास आदि रोगों के उपचार में; शार्ङ्गधरसंहिता में अश्मरी, रक्तार्श, बाधिर्य, नासार्श आदि रोगों के उपचार में; अष्टाङ्गसंग्रह में क्षय-कास, स्वास-हिक्का,राजयक्ष्मा, अश्मरी, गुल्म, अग्निमान्ध्य, आमदोष, कृमिजशिरोरोग, कुष्ठ आदि रोगों के उपचार में अपामार्ग अर्थात लटजीरा के उपनेक योगों के वर्णन मिलाता है । चक्रपाणि विरचित चक्रदत्त के लिङ्गार्श चिकित्सा में भल्लातक के साथ अपामार्ग का नामोल्लेख पाया जाता है।
अपामार्ग के औषधीय गुण-धर्म
राज निघण्टु के मतानुसार अपामार्ग कड़वा, गर्म, चरपरा, कफनाशक तथा कंण्डू, उदर रोग, आंव (पेचिश) और रुधिरविकार को दूर करता है। इसके अतिरिक्त यह वमनकारक और मलरोधक है।
भावप्रकाश निघण्टु के मतानुसार यह दस्तावर, तीक्ष्ण, दीपन, कड़वा, चरपरा, पाचक, रुचिकारक तथा वमन, कफ, मेदरोग, वात, हृदयरोग, आध्मान, बवासीर, कंण्डू, उदर रोग, शूल, पाचन शक्ति की हीनता को दूर करता है। भावमिश्र रचित भावप्रकाश निघण्टु के अनुसार यह गुणों में दस्तावर, तीक्षण, अग्निप्रदीपक, कड़वा, चरपरा, पाचक, रुचिकारक और वमन, कफ, मेद, वात, हृदयरोग, अफारा, बवासीर, खुजली, शूल, उदर रोग तथा अपची को नष्ट करने वाला है। लाल अपामार्ग गुणों में वातरोधक, कफ कारक, शीतल, रुक्ष और श्वेत-आपामार्ग के गुणों से कुछ न्यून होता है। इसके बीज रस में स्वादिष्ट, पाक में दुर्जर, विष्टम्भी, वातकारक और रुक्ष होते हैं तथा रक्तपित्त को दूर करने वाले होते हैं।
शोढल निघण्टु के मतानुसार अपामार्ग अग्निकारक, तीक्ष्ण नास लेने (सूंघने) से सिर के कीड़ों को नष्ट करने वाला, वमनकारक, रक्तविकारनाशक और रक्तातिसारनिवारक होता है। यह औषधि नस्य तथा वमन कार्य में अत्यंत प्रभावशाली है तथा दाद, खुजली और कफ को नाश करने वाली है।
अपामार्ग संकोचक, मूत्रकारक व रसायन है। यह रजः-स्राव व अतिसार में, आम व रक्तातिसार में सेव्य है। अपामार्ग क्षार, अगंभीर शोथ, जलोदर, चर्म रोग व गलगण्ड में प्रयोज्य है। शुष्क काश में सेवन करने से श्लेष्मा को बाहर निकालने वाला है। अपामार्ग, कुत्ते सर्प तथा अन्य प्रकार के विष प्रभाव वाले रोगों में सेव्य है। अस्पष्ट दृष्टि में इसके पत्तों का प्रलेप हितकर है। अपामार्ग स्वरससाधित तेल कर्णबाधिर्य व कर्णनाद के लिए बहुत हितकर होता है। व्रण रोपण हेतु यह हितकर है, इसीलिए किणिही कहा जाता है जिसका तात्पर्य व्रणहन्ता होता है। आयुर्वेद में औषधियों में इसकी शाखा, पत्र, मूल तथा बीज एवं पञ्चाङ्गक्षार का प्रयोग किया जाता है।
चिरचिटा के फल का गुण – यह स्वाद तथा विपाक में मधुर रसयुक्त, दुर्जर (जल्दी हजम नहीं होने वाला), विष्टब्धताकारक, वातजनक, रुक्ष तथा रक्तपित्त को दूर करने वाला होता है। दुर्जर होने के करण यह भस्मक रोग में उपयोगी होते हैं।
यूनानी चिकित्सा मत के अनुसार ये पौधा पहले दर्जे का शीतल और रुक्ष जाए तथा इन्द्रिय-शक्ति उद्दीपक, हर्ष उत्पादक, वीर्यवर्धक, संकोचक मूत्रल और धातुपरिवर्तक है।
इसमें लगभग एक-तिहाई यवक्षार पाया जाता है। इसके अतिरिक्त चूना, सोराखार, नमक, लौह तथा गन्धक इत्यादि अन्य महत्वपूर्ण औषधीय द्रव्य भी इसमें पाए जाते हैं। अपामार्ग गुणों में उष्णवीर्य, तिक्त, कटु, तीक्ष्ण, दीपन, पाचन, पित्तविरेचन, वामक, मूत्रजनन, कफ़घ्न, विषघ्न, कृमिघ्न, अम्लतानाशक एवं शिरोविरोचन (बीज) होता है। इसका प्रयोग कफ, मेद, वात, अर्श, आनाह, शूल, जलोदर, शोफ, अपची, व्रण, त्वचा के विकार एवं सर्पादि के विष में किया जाता है।
अमाशय की शिथिलता, हृल्लास, पीड़ा एवं कुपचन में अपामार्ग को अन्य कड़वे पदार्थों के साथ भोजन के पूर्व दिया जाता है। इससे पाचक रस की वृद्धि होती है तथा शूल कम होता है। भोजन के उपरांत देने पर अम्लता कम होती है तथा श्लेष्मा का विलयन होता है। इसका यकृत पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इससे पित्तवाहिनी नलिका का शोथ कम होकर पित्तस्राव उचित होता है। पित्ताश्मरी तथा अर्श में इससे अच्छा लाभ मिलता है। अर्श में इसकी जड़ को तडुलोदक/तण्डुलोदक के साथ पीसकर मधु में मिला कर देते हैं। रक्तार्श में इसके बीज का लेप भी उपयोगी होता है।
दिल, दिमाग, अमाशय इत्यादि मनुष्य के सभी अंगों पर इसका प्रभाव पड़ता है। खासकर के इस औषधि में वामक कृमिघ्न, शिरोविरोचनकारी, व्रणपूरक, क्षुधानाशक आदि गुण विशेष तौर पे पाए जाते हैं।
जङ्गलनी जड़ी-बूटी नामक ग्रंथ के अनुसार जिस स्त्री के प्रसव के समय भयंकर कष्ट हो रहा हो और प्रसव में विलंब हो रहा हो। उसकी कमर में अगर रविवार और पुष्य नक्षत्र के दिन लकड़ी के औजार से खोदकर।लायी हुई अपामार्ग की जड़ को बांध दिया जाए तो तुरंत प्रसव हो जाता है लेकिन प्रसव होते ही उस जड़ को फौरन खोल देना चाहिए अन्यथा गर्भाशय के बाहर आने का डर रहता है। चक्रपाणि विरचित चक्रदत्त में सुखप्रसवोपायों में लटजीरा अथवा चिरचिटा का उल्लेख किया है।
अपामार्ग के व्यावहारिक अनुप्रयोग:
वनौषधि चन्द्रोदय (1938AD) के अनुसार –
मूत्रेन्द्रिय विकारो में इसके साथ मुलेठी, गोखरू तथा पाठा का उपयोग करते हैं।
वृक्कजन्य जलोदर में इससे लाभ होता है। इससे मूत्र की अम्लता कम होने से तथा इसका दाहशामक प्रभाव होने के कारण बस्तिशोथ, वृक्कशोथ तथा अश्मरी में इसको देते हैं। अश्मरी में इसके क्षार को भेड़ के मूत्र के साथ दिया जाता है।
जीर्ण कफ विकारो में इसका क्षार बहुत ही लाभदायक होता है। इससे गाढ़ा कफ पतला होकर निकलने लग जाता है। इसमें चतुःषष्टि पीप्पली (चौंसठ प्रहरी पिप्पली), अतीस तथा कुपीलु घृत एवं मधु के साथ अपामार्ग क्षार दिया जाता है।
सर्प विष, वृश्चिकदंश, मूषिक विष तथा पागल कुत्ते के काटने पर इसका उपयोग करते हैं। इसमें मूल, पञ्चाङ्ग या बीज का लेप करते हैं तथा मूल को पीसकर पिलाते है।
आंखो की फूली में इसकी जड़ को मधु के साथ पीसकर अंञ्जन कराते हैं। दंतशूल में पत्र स्वरस मसूड़ों पर मलते हैं तथा दांतों के गढ़ों में क्षार भरते हैं। इसकी दतुअन करने से लाभ होता है।
बाधिर्य, कर्णशूल तथा नाद में इससे सिद्ध किये हुए तेल को कान में डाला जाता है। सन्धिशोथ में पत्तों को पीसकर गर्म कर बाँधते हैं। इसके पञ्चाङ्ग के क्वाथ से स्नान कराने से कण्डू दूर होती है।
सद्यःक्षत में खून रोकने के लिए इसका पत्रस्वरस लगाते हैं।
अपामार्ग की 6 माशा ताजी जड़ को पानी में घोलकर पिलाने से पथरी रोग में बड़ा लाभ पहुँचता है। यह औषधि बस्ती से पथरी के टुकड़े कर बहार निकाल देती है। वृक्क शूल के लिए भी यह औषधि महान है।
इसके बीजों को पीसकर उनका चूर्ण तीन माशे की मात्रा में सवेरे शाम चावल के धोवन के साथ देने से बवासीर में पड़ने वाला खून बंद हो जाता है। अथवा इसकी जड़, बीज और पत्तों को कूटकर उनके चूर्ण में समान भाग मिश्री मिलाकर छह माशे की मात्रा में जल के साथ देने पर खूनी बवासीर मिट जाता है।
नेत्र रोग में इसकी जड़ को पानी के साथ महीन पीसकर आंख में आँजने (अंञ्जन) से आग की फूली तथा दूसरे नेत्र लोगों को रोगों में लाभ पहुंचता है। अगर रतौंधी आती हो तो इसकी जड़ का छह मासा चूर्ण शाम को भोजन के पश्चात खाकर ऊपर से पानी पीकर सो जाने से 3 दिन में अच्छा लाभ मिलता है।
दंतशूल इसकी ताज़ी जड़ से प्रतिदिन दाँतुन करने से दांत मोती की तरह चमकने लगते हैं। यह दतुन दंतशूल, दांतों का हिलना, मसूड़ों की कमजोरी तथा मुँह की दुर्गंध को दूर करता।
मस्तिष्क की पुरानी बीमारियां, पीनस के भयंकर रोग, आधा शीशी, मस्तक की जड़ता इत्यादि रोगों में जिसमें मस्तक के अंदर कफ इकट्ठा हो जाता है तथा कीड़े पड़ जाते हैं, और कोई दूसरी औषधि काम नहीं करती, अपामार्ग के बीजों का चूर्ण करके सुंघाने से चमत्कारिक लाभ होता है। इस चूर्ण को सुंघाने से मस्तक के अंदर जमा हुआ कफ पतला होकर नाक के जरिये निकल जाता है और वहाँ पर पैदा हुए कीड़े भी झड़ जाते हैं। अपामार्ग के अतिरिक्त इसके चूर्ण में अन्य कृमिनाशक तथा कफनिस्सारक औषधियों का चूर्ण भी मिला दिया जाए तो वह और भी अधिक प्रभावी हो जाता है।
अपामार्ग के प्रयोग में सावधानियाँ:
इंडियन मटेरिया मेडिका के लेखक डॉक्टर नाडकरनी के अनुसार अधिक मात्रा में देने पर यह गर्भपात और प्रसव वेदना को उत्पन्न करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ और शोधपत्र:
- Ayurveda Classical Text
- Maharshi Sushrut. (800BCE – 600BCE). Sushrut Samhita
- Acharya Charak. (100BCE – 200CE). Charak Samhita.
- Datta, Chakrapani. (11th century). Chakradatta aka Chikitsasangraha
- Mishra, Bhav. (1500-1600AD). Bhavprakash Samhita.
- Sen, Govind Das. (1925AD). Bhaishajya Ratnavali.
- Bhandari, Chandraraj (1938AD). Vanoushadhi Chandroday.
- Modern Reseach Papers
- Rupesh Kumar Sanger, D.C. Singh, Anup Kumar Gakkhar, Suresh Chaubey. Review of Apamarga (Achyranthes Aspera Linn.) in Vedic Vaangmaya & Samhita Granths. International Journal of Ayurveda and Pharma Research. 2016;4(7):96-100.
- Gurjar Hemwati, Kotecha Mita. An Overview on Divine Herb Apamarga (Achyranthes aspera Linn.). International Journal of Ayurveda and Pharmaceutical Chemistry. 2019;10(3):391-408.
- Images: Photographer: Ashwani Kumar