सर्वोत्तम घृत – आयुर्वेद के अनुसार || Best Ghee (Clarified Butter) in Ayurveda
सर्वोत्तम घी (Best Ghee) शुद्ध तो होता ही है साथ में शुभ और
पवित्र भी होता है। प्राचीन काल से ही घृत को “सनातनी पूजन विधानों” में केन्द्रीय भूमिका मिली हुई है। आयुर्वेद में महत्वपूर्ण औषधीय द्रव्य के रूप में प्रयोग होता आ रहा है। आयुर्वेद में घी का उपयोग औषधि के रूप में करने के अलावा “औषधि वितरण वाहन” (drug delivery vehicle) के रूप में भी किया जाता है। आयुर्वेद में घी अथवा घृत को अलक्ष्मी (दरिद्रता, कुरुपता), पाप, विष, पित्त और वात का नाशक तथा गुणों में घी को रसायन, मधुर, नेत्रों को हितकारी, अग्नि प्रदीपक, शीतवीर्य, किन्चित अभिष्यन्दि बताया गया है। घी कांति, बल, तेज, लावण्य, बुद्धि, स्वर की निर्मलता, स्मरण शक्ति को उत्तम, मेधा को हितकारी, आयुवर्धक, बलकारी, भारी, स्निग्ध, कफकारक और उदावर्त, ज्वर, उन्माद, शूल तथा अफ़रा, वर्ण क्षय, विसर्प, और रक्तविकार को नष्ट करता है।
वेदों में हविस् के नाम से बुलाये जाने वाले घी को आयुर्वेद में आज्य, सर्पिस आदि नामों से जाना जाता है। यूनानी चिकित्सा में घी को सेम्नेह्/समानुन् (अरबी में) और रोगने-ज़र्द (फारसी में) कहते हैं। घी एक मशहूर पदार्थ है जो गाय, भैस, बकरी इत्यादि पशुओं से प्राप्त होता है।
आयुर्वेदिक मत के अनुसार, सुश्रुत ने कहा है कि घी सौम्य, शीतवीर्य, कोमल, मधुर, अमृत के समान गुणकारी; स्निग्ध और उदावर्त, उन्माद, मृगी, उदरशूल, ज्वर और पित्त को दूर करने वाला, अग्निदीपक तथा स्मरणशक्ति, बुद्धि, मेधा, सौंदर्य, स्वर, लावण्य, सुकुमारता, ओज, तेज और बल तथा आयु को बढ़ाने वाला, वीर्यवर्धक, अवस्था को स्थापन करने वाला, नेत्र को हितकारी, विषनाशक और राक्षस की बाधा को दूर करने वाला होता है। यह अजीर्ण, उन्माद, क्षय, रक्तपित्त, वृण, रुधिरविकार, क्षत, दाह, योनिरोग, नेत्ररोग, कर्णरोग, दाद, शिरोरोग, सूजन और त्रिदोश को नष्ट करने वाला होता है।
यह अविराम वातज्वर और वाले को हितकारी तथा आमज्वर पर विष के समान हानिकारक है।
यूनानी मत के अनुसार, यह पहले दर्जे में गर्म और तर है। यह दस्त को साफ करता है, शरीर को पुष्ट करता है, पित्त और कफ के जमे हुए सुद्दों को बिखेरता है, सीने और गले की जलन को दूर करता है, गले की खुश्की को मिटाता है, दिमाग को ताकत देता है, बच्चों के मसूड़ों पर इसको मलने से दांत जल्दी निकल आते हैं। गरम और खुश्क जहरों के उपद्रवों को दूर करता है। नमक के साथ घी को खाने से वात के उपद्रव दूर होते हैं। सोंठ, कालीमिर्च और लौन्ग पीपर के साथ घी खाने से कफ की बिमारी में लाभ होता है। सोंठ और ज्वाखार के साथ घी को खाने से मेदा की कमजोरी मिटती है और भूख बढ़ती है। 13 माशे शक्कर के साथ 2 तोला घी को मिलाकर चाटने से रुका हुआ पेशाब खुल जाता है। रात को सोते समय घी को मुँह पर मलने से चेहरे के काले दाग मिट जाते हैं।
किसी भी जुलाब को लेने से पहले अगर 3 दिन तक घी का काली मिर्च के साथ सेवन कर लिया जाए तो आँतें मुलायम होकर मल फूल जाता और पेट की सब गंदगी जुलाब के साथ बाहर निकल जाती है।

आयुर्वेद के अनुसार विभिन्न श्रोतों से प्राप्त घृत के गुण-दोष:
गाय का घृत विशेष रूप से नेत्रों को हितकारी, वृष्य, अग्निप्रदीपक, पाक में मधुर। शीतल वातपित्त तथा कफ नाशक, बुद्धि, लावण्य, कांति, ओज तथा तेज की वृद्धि करने वाला, कुरूपता, पाप तथा राक्षस नाशक। आस्थापक, बलवर्धक, भारी, पवित्र, आयुवर्धक, मंगलरूप, रसायन, सुगंध युक्त, रूचिवर्धक, सुंदर और संपूर्ण घृतों में उत्तम होता है।
आयुर्वेदिक मत के अनुसार – गाय का घी सब प्रकार के घी में उत्तम होता है। यह बुद्धि, कांति और स्मरणशक्ति को बढ़ाने वाला, वीर्यवर्धक, मेधाजनक, वातकफनाशक, श्रमनिवारक, पित्त को दूर करने वाला, हृदय को हितकारी, अग्निदीपक, पचने में मधुर और यौवन को स्थिर करने वाला होता है। यह अमृत के समान गुणकारी, विष को नष्ट करने वाला, नेत्रों की ज्योति बढ़ाने वाला और परम रसायन है।
यूनानी मत के अनुसार भी गाय का घी सभी घी में सर्वोत्तम होता है। यह जहर को दूर करता है, चित की प्रसन्नता पैदा करता है, शरीर को मजबूत करता है। कफ, पित्त और वात के रोगों, सीने का दर्द और शरीर की बेचैनी को मिटाता है।
गाय का दूध और घी मिलाकर पिलाने से अफीम वगैरह स्थावर पदार्थों के विष में लाभ पहुंचता है। गाय का गर्म घी पिलाने से हिचकी बंद हो जाता है। खाना खाने के बाद घी में काली मिर्च मिलाकर चाटने से आवाज की खराबी मिट जाती है। गाय का गर्म घी सुंघाने से आधाशीशी में लाभ होता है।

भैस का घी, मधुर, शीतल, कफकारक, वृष, भारी, पाक में मधुर और पित्त, रक्तविकार तथा वातनाशक।
भेंस का घी उत्तम, स्वादिष्ट, रक्त-पित्तनाशक, वातनिवारक, बलकारक, शीतल, वीर्यवर्धक, भारी, हृदय को हितकारी और पाक में स्वादिष्ट होता है।
यूनानी मत के अनुसार भैस का घी मेदे को ढीला करता है। इसको सवेरे खाली पेट शक्कर के साथ खाने से पित्त के उपद्रव शांत होते हैं। यह वायु को मिटाता है। भूख कम करता है और वीर्यवर्धक होता है।
बकरी का घी अग्निकारक, नेत्रों को हितकारी, बलवर्धक, पाक में चरपरा व कफनाशक और खांसी, श्वास तथा क्षय में हितकारी है।
आयुर्वेदिक मत से बकरी का घी, अग्निवर्धक, नेत्रों को हितकारी, श्वास, खांसी और क्षयरोग में लाभदायक, पाक में कड़वा तथा कफ और राजयक्ष्मा के रोगों को दूर करने वाला होता है।
यूनानी मत के अनुसार बकरी का घी गर्म होता है। यह खांसी, दामा और तपेदिक मैं लाभकारी होता है।

ऊंटनी का घी पाक में चरपरा, अग्निप्रदीपक और शोष, कृमि, विष, वात, कोढ़, गुल्म और उदर रोग का नाशक।
भेड़ का घी पाक में हल्का, सर्वरोगनाशक, अस्थि की वृद्धि करने वाला, पथरी व शर्करा नाशक, नेत्रों को हितकारी, अग्निप्रदीपक और वायु के दोषों को निवारण करता है।
घोड़ी का घी शरीर को अग्नि को बढ़ाने वाला, पाक में हल्का, विष विनाशक, तृप्तिकारक, नेत्रों के रोग तथा दाह का नाशक है।
दूध से निकला हुआ घी ग्राही, शीतल और नेत्र रोग, पित्त, दाह, रक्तविकार, मद, मूर्छा, भ्रम तथा वात का नाशक होता है।
पहले दिन के दूध से निकाले हुए घी को हैयंगवीन कहते हैं। यह घी नेत्रों को हितकारी, अग्निप्रदीपक, अत्यंत रुचिवर्धक, बल वर्धक, पुष्टिकारक, वृष्य व विशेषकर के ज्वर का नाशक होता है।
पुरातन घी – एक वर्ष से अधिक पुराना घी, पुराना घी कहलाता है। यह घी त्रिदोषनाशक और मूर्क्षा, कुष्ठ, विष, उन्माद, मृगी था तिमिर नाशक होता है।
हर प्रकार के घी जितने ही प्राचीन होते जाते हैं, उतने ही अधिक गुणकारी होते जाते हैं।
नया घी, भोजन, तर्पण, परिश्रम, बालक्षय, पांडु रोग, कामला तथा नेत्ररोग इन सब में उपयोग करना चाहिए।
विशेष: बालक तथा वृद्ध को,राजयक्ष्मा, कफ रोग, आमव्याधि, विषूचिका (हैजा), मलबंध,मदात्यय,ज्वर और मंदाग्नि में विशेष घी नहीं देना चाहिए।
शतध्योत घृत (100 बार धोया हुआ घी) बाह्य उपचारों के लिए बहुत अच्छी चीज़ है। इसका मलहम गठिया, शरीर की सुन्नता, पुट्ठों का दर्द, जोड़ों की सूजन और हाथ-पांव की जलन में लगाने से लाभ होता है। 100 बार धोया हुआ घी सिर पर मलने से रक्तपित्त में लाभ होता है। इसी घी को हाथ पांव पर मालिश करने से हाथ पांव में होने वाली बादी की सूजन मिट जाती है। इसकी मालिश से भिड़े और मक्खी का जहर भी उतर जाता है और इसके लेप करने से विषर्प रोग में लाभ होता है।
- पांडुरोग में- सोंठ से सिद्ध किया हुआ घी संग्रहणी, पांडुरोग, प्लीहा, खासी इत्यादि रोगों में लाभ पहुंचाता है।
– हिचकी – थोड़ा सा गर्म-गर्म ताजा घी पिलाने से हिचकी बंद हो जाती है।
– स्वरभंग – भोजन के पश्चात घी को काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर पिलाने से स्वरभंग भंग मिटता।
– मंदाग्नि – जीरा और धनिया से सिद्ध किया हुआ घी वमन, अरुचि और मंदाग्नि में लाभ पहुंचाता है।
– धनियां और गोखरू के क्वाथ और कल्क से सिद्धि किया हुआ घी मूत्रघात, मूत्रकृच्छ्र और शुक्रदोष को मिटाता है।
– अंडवृद्धि – गाय के घी के साथ सेंधा नमक मिलाकर पीने से व उसका लेपन करने से अंडवृद्धि में लाभ होता है।
– चार भाग अडूसे के रस में एक भाग घी को सिद्ध करके सेवन करने से रक्त-पित्त में लाभ होता है।
– शतावरी से सिद्धि किया हुआ घी अम्लपित्त, रक्तपित्त, तृष्णा, मूर्छा और श्वास मे लाभ पहुंचाता है।
– चार भाग कांजी के जल में एक भाग घी मिलाकर उसके बीच में सोंठ की लुगदी रखकर आग पर सिद्ध करके उस घी का सेवन करने से आम वात तथा मंदाग्नि मिट जाती है।
– पीपल के क्वाथ और कल्क से घी को सिद्ध करके उस घी में असमान भाग शहद मिलाकर चाटने से परिणाम शूल मिटता है।
– अर्जुन के स्वरस और उसकी लुग्दी से घी को सिद्ध करके उसका सेवन करने से सब प्रकार के हृदय रोग मिट जाते हैं।
डिस्क्लेमर: विशेष सूचना/अस्वीकरण: औषधियों के सेवन के लिए चिकित्सकीय परामर्श किया जाना सलाहनीय है। यह लेख सिर्फ जागरूकता और जानकारी बढ़ाने के उद्देश्य से प्रेरित है, इसे किसी तरह की चिकित्सकीय परामर्श के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। इस लेख में जानकारियां आधुनिक वैज्ञानिक शोधों और आयुर्वेद के प्राचीन मूल/प्रमाणिक ग्रन्थों से ली गई हैं जिनके सही होने का दावा लेखक नहीं करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ और शोधपत्र:
- Ayurveda Classical Text
- Maharshi Sushrut. (800BCE – 600BCE). Sushrut Samhita
- Acharya Charak. (100BCE – 200CE). Charak Samhita.
- Mishra, Bhav. (1500-1600AD). Bhavprakash Samhita.
- Sen, Govind Das. (1925AD). Bhaishajya Ratnavali.
- Bhandari, Chandraraj (1938AD). Vanoushadhi Chandroday.
- Modern Reseach Papers
- Ashokkumar, Ka
- Cárdenas Garza,
- Korikanthimath
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