Kaner ke Fayade aur Nukshan
कनेर अथवा करवीरा का पौधा न सिर्फ अपनी पवित्रता और अद्भुत सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है बल्कि अपने औषधीय गुणों के लिए भी जाना जाता है. हाल के समय में इसकी प्रसिद्धि बढ़ती जा रही है. इसलिए इसके गुण-दोषों को समाहित करता हुआ एक लेख आवश्यक हो जाता है. असल में कनेर के पौधे के प्रत्येक भाग में विषाक्तता पाई जाती है जो मनुष्य सहित सभी प्राणियों के लिए जानलेवा हद तक खतरनाक होती है. सबसे ख़ास बात यह है कि इसमें पाए जाने वाले विषाक्त द्रव्य क्यूटेनिअस होते हैं अर्थात त्वचा में लगाये जाने पर यह शरीर में अवशोषित हो जाते हैं. पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सा की दुनिया में कनेर एक विरोधाभास के रूप में सदैव से उपस्थित है। उपविष द्रव्य के रूप में, यह अपने विषैले गुणों के कारण चिंता का एक स्रोत है और विशेषज्ञता के साथ उपयोग किए जाने पर एक प्रभावी औषधि भी है। यह लेख करवीरा के विषाक्त पहलुओं, औषधीय निहितार्थों और आयुर्वेद में चिकित्सीय उपयोगों पर प्रकाश डालकर इसके जटिल द्वंद्व का पता लगाने का प्रयास करता है।
Kaner ke Fayade aur Nukshan: कनेर का पौधा हिन्दू/सनातन पूजा-अर्चना में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है. इसके पौधे में साक्षात् भगवन विष्णु का वास मन जाता है और इसके पुष्प देवाधि-देव भगवन शिव के अत्यंत प्रिय हैं. इसके आलावा ज्योतिष और तांत्रिक विद्याओं (ज्योतिष अध्ययन) में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। रावन कृत रावन संहिता के अनुसार कनेर अथवा करवीरा का उपयोग ‘आकर्षण मंत्र’ और ‘वशीकरण तंत्र’ (सम्मोहन) के लिए भी किया जाता है.
आयुर्वेद में करवीरा – जहरीला विरोधाभास और उपचार चमत्कार
औषधीय पौधों के पारंपरिक आयुर्वेदिक ज्ञान के मुख्य संसाधनों, प्राचीन संहिताओं और निघण्टुओं में करवीरा की दो किस्मों, सफेद और लाल का ही वर्णन किया गया है, जिन्हें वानस्पतिक रूप से नेरियम इंडिकम के रूप में पहचाना गया है। चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी के आस-पास कश्मीर के श्री नरहरि पण्डित द्वारा रचित “राज निघण्टु” में कुल चार प्रकार के करवीरा का वर्णन किया गया है – सफेद, लाल, पीला और काला। वानस्पतिक रूप से, पीली किस्म थेवेटिया पेरुवियाना के रूप में पहचानी जाती है जबकि काली किस्म की अभी भी पहचान नहीं हो पाई है. खास बात यह है कि आयुर्वेद में इसकी विषाक्तता की पहचान प्राचीन काल से ही है और इसके शोधन की संश्लिष्ट प्रक्रियाएं आयुर्वेदिक ग्रंथों में वर्णित हैं. आम तौर पर, पारंपरिक आयुर्वेद में कनेर की पत्तियों और जड़ों का उपयोग औषधि के रूप में अत्यन्त सावधानी से किया जाता है, जिन्हें किसी भी प्रकार के औषधीय उपयोग से पहले अनिवार्य रूप से शोधित किया जाता है.
Kaner ke Fayade aur Nukshan: आमतौर पर आयुर्वेद में कनेर के बाह्य उपयोग ही मिलते हैं. इसका आतंरिक प्रयोग बहुत कम किया जाता है. आयुर्वेदिक शास्त्रीय चिकित्सा में श्वेत और रक्त कनेर का अधिक व्यवहार किया जाता है. भावप्रकाश निघण्टु के अनुसार कनेर (श्वेत और रक्त) तिक्त, कषाय और कटु रस युक्त उष्णवीर्य तथा कुष्ठ, व्रण, खुजली एवं कृमि को नष्ट करने वाले होते हैं. आयुर्वेदिक ग्रन्थ रसचण्डांशु (रस रत्न संग्रह) के अनुसार कनेर की जड़ के छोटे टुकड़ों को गाय के दूध में दोलायमान यन्त्र से उबल कर सुखा लेने से कनेर शोधित हो जाता है.
Kaner ke Fayade aur Nukshan: करवीरा, एक जीवंत झाड़ी है, जिसमें खतरनाक यौगिक होते हैं, विशेष रूप से ओलियंड्रिन और नेरिन, जो पौधे के सभी भागों में वितरित होते हैं। ये पदार्थ मानव शरीर में प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं, जो मुख्य रूप से हृदय और जठरांत्र प्रणालियों को प्रभावित करते हैं। करवीरा विषाक्तता के लक्षण गंभीर हो सकते हैं, जिनमें मतली, उल्टी, दस्त और यहां तक कि घातक हृदयाघात भी शामिल हैं। करावीरा विषाक्तता की संभावित जीवन-घातक प्रकृति के कारण तत्काल चिकित्सा ध्यान देने की आवश्यकता है। आयुर्वेद में, विशेषज्ञ प्रभावित लोगों के इलाज के लिए मारक औषधि और सहायक देखभाल का उपयोग करते हैं। आयुर्वेद, लक्षण प्रबंधन और पुनर्प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित करते हुए, जहर वाले व्यक्तियों के लिए समग्र देखभाल में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।
निष्कर्ष:
करवीरा, जहर और दवा के रूप में अपनी दोहरी पहचान के साथ, पारंपरिक उपचार पद्धतियों की जटिलता का एक आकर्षक उदाहरण है। इसके खतरों को स्वीकार करके और कुशलता से उपयोग किए जाने पर इसकी चिकित्सीय क्षमता को पहचानकर, हम आयुर्वेद में करवीरा और इसी तरह के पौधों के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस रहस्यमय पौधे का जिम्मेदार और प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करने के लिए तथा सुरक्षित और प्रभावी पद्धतियों को स्थापित करने के लिए पारंपरिक आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा के बीच सहयोग आवश्यक है।
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